मैं ख़ुद से मिल के कभी साफ़ साफ़ कह दूँगा
मुझे पसंद नहीं है मुदाख़लत अपनी
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किस ज़माने में मुझ को भेज दिया
सोला दिसम्बर
ख़ाक छानी न किसी दश्त में वहशत की है
चख रहा था मैं इक बदन का नमक
हर तरफ़ तू नज़र आता है जिधर जाता हूँ
मैं ख़ुद को मिस्मार कर के मलबा बना रहा हूँ
दोस्तो मेरे लिए कोई भी अफ़्सुर्दा न हो
जाने तोड़े थे किस ने किस के लिए
तू मिरे सब्र का अंदाज़ा लगा सकता है
बे-मसरफ़ रिश्तों की फ़राग़त
मैं सब का सब मोहब्बत के लिए हूँ
किस शफ़क़त में गुँधे हुए मौला माँ बाप दिए