माज़रत रौंदे हुए फूलों से कर लूँ तो चलूँ
मुंतज़िर शहर में ताख़ीर से आया हुआ मैं
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इतना बे-ताब न हो मुझ से बिछड़ने के लिए
मैं ख़ुद से मिल के कभी साफ़ साफ़ कह दूँगा
ख़ुद अपने हाथ से क्या क्या हुआ नहीं मिरे साथ
एक क़दीम ख़याली की निगरानी में
उसे छूते हुए भी डर रहा था
सोला दिसम्बर
एक और मुुहब्बत....
हिज्र को बीच में नहीं छोड़ा
तन्हाई का सफ़रनामा
हिज्र में भी हम एक दूसरे के
उठाए फिरता रहा मैं बहुत मोहब्बत को