तेरे अंदर की उदासी के मुशाबह हूँ मैं
ख़ाल-ओ-ख़द से नहीं आवाज़ से पहचान मुझे
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सख़्त मुश्किल में किया हिज्र ने आसान मुझे
बुझने दे सब दिए मुझे तन्हाई चाहिए
मेरी मिट्टी से बहुत ख़ुश हैं मिरे कूज़ा-गर
कल तो तिरे ख़्वाबों ने मुझ पर यूँ अर्ज़ानी की
ख़्वाब शर्मिंदा-ए-विसाल हुआ
माज़रत रौंदे हुए फूलों से कर लूँ तो चलूँ
मुझ से ख़ाली है मेरा आईना
ख़ुद अपने हाथ से क्या क्या हुआ नहीं मिरे साथ
मैं अंधेरे में हूँ मगर मुझ में
ऐसी क्या बीत गई मुझ पे कि जिस के बाइस
मुझे भी सहनी पड़ेगी मुख़ालिफ़त अपनी
उठाए फिरता रहा मैं बहुत मोहब्बत को