तुझ से ये कैसा तअल्लुक़ है जिसे जब चाहूँ
ख़त्म कर देता हूँ आग़ाज़ भी कर लेता हूँ
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विसाल की तीसरी सम्त
कुछ तो खिंची खिंची सी थी साअत विसाल की
अध-बुने ख़्वाबों का अम्बार पड़ा है दिल में
हिज्र में भी हम एक दूसरे के
तख़्लीक़ की साअतों में
एक दिन मेरी ख़ामुशी ने मुझे
ज़ुहूर-ए-कश्फ़-ओ-करामात में पड़ा हुआ हूँ
मेरी मिट्टी से बहुत ख़ुश हैं मिरे कूज़ा-गर
मैं और मेरी तन्हाई
किस ने आबाद किया है मरी वीरानी को
पत्थर में कौन जोंक लगाएगा मेरे दोस्त
उठाए फिरता रहा मैं बहुत मोहब्बत को