तुम अकेले में मिले ही नहीं वर्ना तुम को
और ही तरह के इक शख़्स से मिलवाता मैं
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किस ने आबाद किया है मरी वीरानी को
रौशनी भी नहीं हवा भी नहीं
तेरे अंदर की उदासी के मुशाबह हूँ मैं
मैं ख़ुद से मिल के कभी साफ़ साफ़ कह दूँगा
सोला दिसम्बर
टूटे हुए प्याले
इन दिनों ख़ुद से फ़राग़त ही फ़राग़त है मुझे
मुझ से ख़ाली है मेरा आईना
एक ताबीर की सूरत नज़र आई है इधर
वो इक दिन जाने किस को याद कर के
उदासी खींच लाई है यहाँ तक
हिज्र को बीच में नहीं छोड़ा