उस ख़ुदा की तलाश है 'अंजुम'
जो ख़ुदा हो के आदमी सा लगे
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किसी तरह से नज़र मुतमइन नहीं होती
कहने सुनने के लिए और बचा ही क्या है
साथ बारिश में लिए फिरते हो उस को 'अंजुम'
उम्र की सारी थकन लाद के घर जाता हूँ
मुहाजिर परिंदों का स्वागत
रौशनी भी नहीं हवा भी नहीं
सारा शगुफ़्ता
फ़लक-नज़ाद सही सर-निगूँ ज़मीं पे था मैं
मुझे भी सहनी पड़ेगी मुख़ालिफ़त अपनी
आती जाती हुई तन्हाई को पहचानता हूँ
जस्त भरता हुआ फ़र्दा के दहाने की तरफ़
कल तो तिरे ख़्वाबों ने मुझ पर यूँ अर्ज़ानी की