उठाए फिरता रहा मैं बहुत मोहब्बत को
फिर एक दिन यूँही सोचा ये क्या मुसीबत है
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ऐसी क्या बीत गई मुझ पे कि जिस के बाइस
वो इक दिन जाने किस को याद कर के
ख़्वाब शर्मिंदा-ए-विसाल हुआ
किसी तरह से मैं टल जाऊँ अपनी मर्ज़ी से
मुहाजिर परिंदों का स्वागत
ये भी आग़ाज़-ए-मोहब्बत में बहुत है मुझ को
मैं आज ख़ुद से मुलाक़ात करने वाला हूँ
किस शफ़क़त में गुँधे हुए मौला माँ बाप दिए
अच्छे मौसम में तग-ओ-ताज़ भी कर लेता हूँ
एक ताबीर की सूरत नज़र आई है इधर
मैं सब का सब मोहब्बत के लिए हूँ
किस ज़माने में मुझ को भेज दिया