वो इक दिन जाने किस को याद कर के
मिरे सीने से लग के रो पड़ा था
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ऐसी क्या बीत गई मुझ पे कि जिस के बाइस
हाँ ज़माने की नहीं अपनी तो सुन सकता था
अपनी तस्दीक़ मुझे तेरी गवाही से हुई
आईना साफ़ था धुँदला हुआ रहता था मैं
विसाल की तीसरी सम्त
उम्र की सारी थकन लाद के घर जाता हूँ
अच्छे मौसम में तग-ओ-ताज़ भी कर लेता हूँ
ख़्वाब शर्मिंदा-ए-विसाल हुआ
मैं जिस चराग़ से बैठा था लौ लगाए हुए
बुझने दे सब दिए मुझे तन्हाई चाहिए
पत्थर में कौन जोंक लगाएगा मेरे दोस्त
जाने तोड़े थे किस ने किस के लिए