ये मोहब्बत का जो अम्बार पड़ा है मुझ में
इस लिए है कि मिरा यार पड़ा है मुझ में
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उठाए फिरता रहा मैं बहुत मोहब्बत को
एक बे-नाम उदासी से भरा बैठा हूँ
आइंदगाँ की उदासी में
इन दिनों ख़ुद से फ़राग़त ही फ़राग़त है मुझे
एक क़दीम ख़याली की निगरानी में
मुझे भी सहनी पड़ेगी मुख़ालिफ़त अपनी
उस ख़ुदा की तलाश है 'अंजुम'
दर्द से भरता रहा ज़ात के ख़ाली-पन को
मैं ख़ुद को मिस्मार कर के मलबा बना रहा हूँ
मैं जिस चराग़ से बैठा था लौ लगाए हुए
ज़मीन हाँपने लगती है इक जगह रुक कर
किस ने आबाद किया है मरी वीरानी को