ज़मीन हाँपने लगती है इक जगह रुक कर
मैं उस का हाथ बटाता हूँ रक़्स करता हूँ
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ऐसी क्या बीत गई मुझ पे कि जिस के बाइस
कहने सुनने के लिए और बचा ही क्या है
बे-मसरफ़ रिश्तों की फ़राग़त
सहर को खोज चराग़ों पे इंहिसार न कर
हर तरफ़ तू नज़र आता है जिधर जाता हूँ
मेरी मिट्टी से बहुत ख़ुश हैं मिरे कूज़ा-गर
काश
उस ख़ुदा की तलाश है 'अंजुम'
इतना तरसाया गया मुझ को मोहब्बत से कि अब
साथ बारिश में लिए फिरते हो उस को 'अंजुम'
एक दिन मेरी ख़ामुशी ने मुझे
बस अंधेरे ने रंग बदला है