हो गए दिन जिन्हें भुलाए हुए
आज कल हैं वो याद आए हुए
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हैं पत्थरों की ज़द पे तुम्हारी गली में हम
जो जल उठी है शबिस्ताँ में याद सी क्या है
उस बज़्म में क्या कोई सुने राय हमारी
हम बुलाते वो तशरीफ़ लाते रहे
मिरी हयात है बस रात के अँधेरे तक
शक नहीं है हमें उस बुत के ख़ुदा होने में
निज़ाम-ए-ज़र में किसी और काम का क्या हो
क्या बे-मुरव्वती का शिकवा गिला किसी से
'शुऊर' तुम ने ख़ुदा जाने क्या किया होगा
टूटा तिलिस्म-ए-वक़्त तो क्या देखता हूँ मैं
गो मुझे एहसास-ए-तन्हाई रहा शिद्दत के साथ