था व'अदा शाम का मगर आए वो रात को
मैं भी किवाड़ खोलने फ़ौरन नहीं गया
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तेरी सोहबत में बैठा हूँ
कह तो सकता हूँ मगर मजबूर कर सकता नहीं
आवारा हूँ रैन-बसेरा कोई नहीं मेरा
ये तन्हाई ये उज़्लत ऐ दिल ऐ दिल
मेरे घर के तमाम दरवाज़े
जनाब के रुख़-ए-रौशन की दीद हो जाती
हो गए दिन जिन्हें भुलाए हुए
यादों के बाग़ से वो हरा-पन नहीं गया
ख़्वाह दिल से मुझे न चाहे वो
इत्तिफ़ाक़ अपनी जगह ख़ुश-क़िस्मती अपनी जगह
तिरे होते जो जचती ही नहीं थी
ज़माने के झमेलों से मुझे क्या