खुलने से एक जिस्म के सौ ऐब ढक गए
उर्याँ-तनी भी जोश-ए-जुनूँ में लिबास है
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शरफ़ इंसान को कब ज़िल्ल-ए-हुमा देता है
दफ़्तर जो गुलों के वो सनम खोल रहा है
कुफ्र-ओ-इस्लाम के झगड़ों से छुड़ाया सद-शुक्र
दस्त-ए-जुनूँ ने फाड़ के फेंका इधर-उधर
बशर के फ़ैज़-ए-सोहबत से लियाक़त आ ही जाती है
ज़मीन पाँव के नीचे से सरकी जाती है
दिल में आते ही ख़ुशी साथ ही इक ग़म आया
ख़ुदा-हाफ़िज़ है अब ऐ ज़ाहिदो इस्लाम-ए-आशिक़ का
बुत-परस्ती ने किया आशिक़-ए-यज़्दाँ मुझ को
ये बारीक उन की कमर हो गई
ये बोले जो उन को कहा बे-मुरव्वत
चश्मक-ज़नी में करती नहीं यार का लिहाज़