अरशद जमाल 'सारिम' कविता, ग़ज़ल तथा कविताओं का अरशद जमाल 'सारिम'
नाम | अरशद जमाल 'सारिम' |
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अंग्रेज़ी नाम | Arshad Jamal 'Sarim' |
ज़िंदगी तू भी हमें वैसे ही इक रोज़ गुज़ार
ज़िंदगी हम से तिरी आँख-मिचोली कब तक
वो इक लम्हा सज़ा काटी गई थी जिस की ख़ातिर
सुपुर्द-ए-आब यूँ ही तो नहीं करता हूँ ख़ाक अपनी
रक़म करूँ भी तो कैसे मैं दास्तान-ए-वफ़ा
न जाने उस ने खुले आसमाँ में क्या देखा
क्या कहूँ कितना फ़ुज़ूँ है तेरे दीवाने का दुख
किस की तनवीर से जल उठ्ठे बसीरत के चराग़
ख़त्म होता ही नहीं सिलसिला तन्हाई का
जाने किस रुत में खिलेंगे यहाँ ताबीर के फूल
इसी बाइस मैं अपना निस्फ़ रखता हूँ अँधेरे में
हर एक शाख़ पे वीरानियाँ मुसल्लत हैं
देख ऐ मेरी ज़बूँ-हाली पे हँसने वाले
बस इतना रब्त काफ़ी है मुझे ऐ भूलने वाले
ऐसी ही बे-चेहरगी छाई हुई है शहर में
ये ख़ाकी पैरहन इक इस्म की बंदिश में रहता है
प्यास हर ज़र्रा-ए-सहरा की बुझाई गई है
पलट कर देखने का मुझ में यारा ही नहीं था
नित-नए नक़्श से बातिन को सजाता हुआ मैं
क्या कहूँ कितनी अज़िय्यत से निकाली गई शब
क्या कहूँ कितना फ़ुज़ूँ है तेरे दीवाने का दुख
किश्त-ए-एहसास में थोड़ा सा मिला लेंगे तुझे
कहाँ कहाँ से सुनाऊँ तुम्हें फ़साना-ए-शब
जुड़े हुए हैं परी-ख़ाने मेरे काग़ज़ से
इज़्तिराब ऐसा हुआ दिल का सहारा मुझ को
फ़ना हुआ तो मैं तार-ए-नफ़स में लौट आया
दो-चार सितारे ही मिरी आँख में धर जा
दिखाती है जो ये दुनिया वो बैठा देखता हूँ मैं
बे-अमाँ हूँ इन दिनों मैं दर-ब-दर फिरता हूँ मैं
बस कि इक लम्स की उम्मीद पे वारे हुए हैं