हल्का था नदामत से सरमाया इबादत का
इक क़तरे में बह निकले तस्बीह के सौ दाने
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मुझे रहने को वो मिला है घर कि जो आफ़तों की है रहगुज़र
नाम मंसूर का क़िस्मत ने उछाला वर्ना
नाले मजबूरों के ख़ाली नहीं जाने वाले
नाले हैं दिलसिताँ तो फिर आहें हैं बर्छियाँ तो फिर
अव्वल-ए-शब वो बज़्म की रौनक़ शम्अ' भी थी परवाना भी
नज़र उस चश्म पे है जाम लिए बैठा हूँ
कह के ये और कुछ कहा न गया
हाथ से किस ने साग़र पटका मौसम की बे-कैफ़ी पर
तस्कीन-ए-दिल का ये क्या क़रीना
जो कान लगा कर सुनते हैं क्या जानें रुमूज़ मोहब्बत के
शौक़ चढ़ती धूप जाता वक़्त घटती छाँव है
यही इक निबाह की शक्ल है वो जफ़ा करें मैं वफ़ा करूँ