असलम महमूद कविता, ग़ज़ल तथा कविताओं का असलम महमूद

असलम महमूद कविता, ग़ज़ल तथा कविताओं का असलम महमूद
नामअसलम महमूद
अंग्रेज़ी नामAslam Mahmood

यही नहीं कि किसी याद ने मलूल किया

वो दर्द हूँ कोई चारा नहीं है जिस का कहीं

तेरे कूचे की हवा पूछे है अब हम से

तेग़-ए-नफ़स को बहुत नाज़ था रफ़्तार पर

तमाम उम्र जिसे मैं उबूर कर न सका

रुक गया आ के जहाँ क़ाफ़िला-ए-रंग-ओ-नशात

रात आती है तो ताक़ों में जलाते हैं चराग़

पाँव उस के भी नहीं उठते मिरे घर की तरफ़

मिरी कहानी रक़म हुई है हवा के औराक़-ए-मुंतशिर पर

मिरे शौक़-ए-सैर-ओ-सफ़र को अब नए इक जहाँ की नुमूद कर

मैं एक रेत का पैकर था और बिखर भी गया

ख़ता ये थी कि मैं आसानियों का तालिब था

कहाँ भटकती फिरेगी अँधेरी गलियों में

हम दिल से रहे तेज़ हवाओं के मुख़ालिफ़

गुज़रते जा रहे हैं क़ाफ़िले तू ही ज़रा रुक जा

देख आ कर कि तिरे हिज्र में भी ज़िंदा हैं

बे-रंग न वापस कर इक संग ही दे सर को

अब ये समझे कि अंधेरा भी ज़रूरी शय है

आ गया कौन ये आज उस के मुक़ाबिल 'असलम'

तू अपने शहर-ए-तरब से न पूछ हाल मिरा

सराब-ए-मअनी-ओ-मफ़्हूम में भटकते हैं

सफ़र से पहले सराबों का सिलसिला रख आए

रंग सारे अपने अंदर रफ़्तगाँ के हैं

रात आती है तो ताक़ों में जलाते हैं चराग़

पत्थरों पर वादियों में नक़्श-ए-पा मेरा भी है

नए पैकर नए साँचे में ढलना चाहता हूँ मैं

न मलाल-ए-हिज्र न मुंतज़िर हैं हवा-ए-शाम-ए-विसाल के

मिज़ा पे ख़्वाब नहीं इंतिज़ार सा कुछ है

मैं हज्व इक अपने हर क़सीदे की रद में तहरीर कर रहा हूँ

मैं एक रेत का पैकर था और बिखर भी गया

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