वो क्या तलब थी तिरे जिस्म के उजाले की
मैं बुझ गया तो मिरा ख़ाना-ए-ख़राब सजा
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चोब-ए-सहरा भी वहाँ रश्क-ए-समर कहलाए
मैं ज़ख़्म ज़ख़्म रहूँ रूह के ख़राबों से
बड़ा कठिन है रास्ता जो आ सको तो साथ दो
गहरी है शब की आँच कि ज़ंजीर-ए-दर कटे
दिलों के दर्द जगा ख़्वाहिशों के ख़्वाब सजा
पारसाओं ने बड़े ज़र्फ़ का इज़हार किया
ज़िंदगी आईना है आईना-आराई है
यक लम्हा सही उम्र का अरमान ही रह जाए
दिल वो सहरा है जहाँ हसरत-ए-साया भी नहीं
दर्द की धूप में सहरा की तरह साथ रहे