ग़ज़ल उस के लिए कहते हैं लेकिन दर-हक़ीक़त हम
घने जंगल में किरनों के लिए रस्ता बनाते हैं
Rahat Indori
Gulzar
Allama Iqbal
Anwar Masood
Wasi Shah
Ahmad Faraz
Javed Akhtar
Mir Taqi Mir
Faiz Ahmad Faiz
Parveen Shakir
Habib Jalib
Jaun Eliya
Love Poetry
Funny Poetry
Sad Poetry
Rain Poetry
Sharabi Poetry
Friends Poetry
(635) Peoples Rate This
आज निकले याद की ज़म्बील से
सारे मंज़र में समाया हुआ लगता है मुझे
कभी उस से दुआ की खेतियाँ सैराब करना
पत्ता हूँ आँधियों के मुक़ाबिल खड़ा हूँ मैं
वो शब के साए में फ़स्ल-ए-नशात काटते हैं
देर लगती है बहुत लौट के आते आते
दश्त-ए-शब में पता ही नहीं चल सका
उसे बाम-ए-पज़ीराई पे कैसे छोड़ दूँ अब
तुम उस की बातों में न आना
लहजे और आवाज़ में रक्खा जाता है
रौशनी हस्ब-ए-ज़रूरत भी नहीं माँगते हम
कुछ अब के रस्म-ए-जहाँ के ख़िलाफ़ करना है