मिरे अंदर ढंडोरा पीटता है कोई रह रह के
जो अपनी ख़ैरियत चाहे वो बस्ती से निकल जाए
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वो इक नज़र से मुझे बे-असास कर देगा
आईना-ख़ाने में खींचे लिए जाता है मुझे
ज़रा मुश्किल से समझेंगे हमारे तर्जुमाँ हम को
मेरी ख़ल्वत में जहाँ गर्द जमी पाई गई
मेरे अंदर एक दस्तक सी कहीं होती रही
न जाने कब से बराबर मिरी तलाश में है
चराग़ बन के जली थी मैं जिस की महफ़िल में
मिरे मिज़ाज को सूरज से जोड़ता क्यूँ है
तू आया तो द्वार भिड़े थे दीप बुझा था आँगन का
एक दिए ने सदियों क्या क्या देखा है बतलाए कौन
मैं रौशनी हूँ तो मेरी पहुँच कहाँ तक है
ज़िंदगी के सारे मौसम आ के रुख़्सत हो गए