दो गज़ ज़मीं फ़रेब-ए-वतन के लिए मिली
वैसे तो आसमाँ भी बहुत हैं ज़मीं बहुत
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न फ़ासले कोई निकले न क़ुर्बतें निकलीं
अलग सियासत-ए-दरबाँ से दिल में है इक बात
कुछ अब के हम भी कहें उस की दास्तान-ए-विसाल
बहार चाक-ए-गिरेबाँ में ठहर जाती है
ख़ूँ हुआ दिल कि पशीमान-ए-सदाक़त है वफ़ा
वो एक रौ जो लब-ए-नुक्ता-चीं में होती है
जो बात दिल में थी उस से नहीं कही हम ने
ग़लत-बयाँ ये फ़ज़ा महर ओ कीं दरोग़ दरोग़
निसार यूँ तो हुआ तुझ पे नक़्द-ए-जाँ क्या क्या
कह सकते तो अहवाल-ए-जहाँ तुम से ही कहते
नरमी हवा की मौज-ए-तरब-ख़ेज़ अभी से है
आज मुक़ाबला है सख़्त मीर-ए-सिपाह के लिए