कभी जन्नत कभी दोज़ख़ कभी का'बा कभी दैर
अजब अंदाज़ से ता'मीर हुआ ख़ाना-ए-दिल
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ये मशवरा बहम उठ्ठे हैं चारा-जू करते
सोज़-ए-ग़म से अश्क का एक एक क़तरा जल गया
उदासी अब किसी का रंग जमने ही नहीं देती
मुसीबत थी हमारे ही लिए क्यूँ
तुम्हें हँसते हुए देखा है जब से
सुकून-ए-दिल नहीं जिस वक़्त से उस बज़्म में आए
रस्म ऐसों से बढ़ाना ही न था
बनी हैं शहर-आशोब-ए-तमन्ना
दिल समझता था कि ख़ल्वत में वो तन्हा होंगे
आईना छोड़ के देखा किए सूरत मेरी
'मीर'
आप जिस दिल से गुरेज़ाँ थे उसी दिल से मिले