मैं तो हस्ती को समझता हूँ सरासर इक गुनाह
पाक-दामानी का दा'वा हो तो किस बुनियाद पर
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ये मशवरा बहम उठ्ठे हैं चारा-जू करते
परतव-ए-हुस्न कहीं अंजुमन-अफ़रोज़ तो हो
ग़लत है दिल पे क़ब्ज़ा क्या करेगी बे-ख़ुदी मेरी
लुत्फ़-ए-बहार कुछ नहीं गो है वही बहार
बाज़ी-ए-इश्क़ मरे बैठे हैं
आईना छोड़ के देखा किए सूरत मेरी
न हुई हम से शब बसर न हुई
हिज्र की रात याद आती है
कभी जन्नत कभी दोज़ख़ कभी का'बा कभी दैर
काम दुनिया में बहुत करना है
बचपने की याद
सामने आइना था मस्ती थी