मंज़िल-ए-हस्ती में इक यूसुफ़ की थी मुझ को तलाश
अब जो देखा कारवाँ का कारवाँ मिलता नहीं
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बे-ख़ुदी कूचा-ए-जानाँ में लिए जाती है
आप जिस दिल से गुरेज़ाँ थे उसी दिल से मिले
ये मशवरा बहम उठ्ठे हैं चारा-जू करते
जल्वा दिखलाए जो वो अपनी ख़ुद-आराई का
हक़ारत से न देखो साकिनान-ए-ख़ाक की बस्ती
बचपने की याद
हाए क्या चीज़ थी जवानी भी
दुआएँ माँगी हैं साक़ी ने खोल कर ज़ुल्फ़ें
काश सुनते वो पुर-असर बातें
दिल समझता था कि ख़ल्वत में वो तन्हा होंगे
अहद में तेरे ज़ुल्म क्या न हुआ
आईना छोड़ के देखा किए सूरत मेरी