मिरे दहन में अगर आप की ज़बाँ होती
तो फिर कुछ और ही उन्वान-ए-दास्ताँ होता
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देख कर हर दर-ओ-दीवार को हैराँ होना
पैदा वो बात कर कि तुझे रोएँ दूसरे
मिरे नासेह मुझे समझा रहे हैं
सोज़-ए-ग़म से अश्क का एक एक क़तरा जल गया
जल्वा दिखलाए जो वो अपनी ख़ुद-आराई का
रस्म ऐसों से बढ़ाना ही न था
हक़ारत से न देखो साकिनान-ए-ख़ाक की बस्ती
शम्अ' बुझ कर रह गई परवाना जल कर रह गया
न हुई हम से शब बसर न हुई
बचपने की याद
चश्म-ए-साक़ी का तसव्वुर बज़्म में काम आ गया
मेरे रोने पे ये हँसी कैसी