मुझ को का'बा में भी हमेशा शैख़
याद-ए-अय्याम-ए-बुत-परस्ती थी
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मैं तो हस्ती को समझता हूँ सरासर इक गुनाह
ऐ सोज़-ए-इश्क़-ए-पिन्हाँ अब क़िस्सा मुख़्तसर है
दिल के अज्ज़ा में नहीं मिलता कोई जुज़्व-ए-निशात
न हुई हम से शब बसर न हुई
क्यूँ न हो शौक़ तिरे दर पे जबीं-साई का
इश्क़ जो मेराज का इक ज़ीना है
सबक़ आ के गोर-ए-ग़रीबाँ से ले लो
जो यहाँ महव-ए-मा-सिवा न हुआ
वो निगाहें क्या कहूँ क्यूँ कर रग-ए-जाँ हो गईं
आप जिस दिल से गुरेज़ाँ थे उसी दिल से मिले
सामने आइना था मस्ती थी
हुस्न-ए-आलम-सोज़ ना-महदूद होना चाहिए