सबक़ आ के गोर-ए-ग़रीबाँ से ले लो
ख़मोशी मुदर्रिस है इस अंजुमन में
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बे-ख़ुदी कूचा-ए-जानाँ में लिए जाती है
दिल नहीं जब तो ख़ाक है दुनिया
शम्अ' बुझ कर रह गई परवाना जल कर रह गया
मुसीबत थी हमारे ही लिए क्यूँ
फूट निकला ज़हर सारे जिस्म में
सोज़-ए-ग़म से अश्क का एक एक क़तरा जल गया
तिरी कोशिश हम ऐ दिल सई-ए-ला-हासिल समझते हैं
काम दुनिया में बहुत करना है
ये ग़लत है ऐ दिल-ए-बद-गुमाँ कि वहाँ किसी का गुज़र नहीं
हक़ारत से न देखो साकिनान-ए-ख़ाक की बस्ती
झूटे वादों पर थी अपनी ज़िंदगी
दिल की आलूदगी-ए-ज़ख़्म बढ़ी जाती है