शीशा-ए-दिल को यूँ न उठाओ
देखो हाथ से छोटा होता
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मुसीबत थी हमारे ही लिए क्यूँ
मंज़िल-ए-हस्ती में इक यूसुफ़ की थी मुझ को तलाश
ये मशवरा बहम उठ्ठे हैं चारा-जू करते
काम दुनिया में बहुत करना है
क़फ़स में जी नहीं लगता है आह फिर भी मिरा
वाइज़ बुतान-ए-दैर से नफ़रत न कीजिए
हमेशा से मिज़ाज-ए-हुस्न में दिक़्क़त-पसंदी है
झूटे वादों पर थी अपनी ज़िंदगी
दिल कुश्ता-ए-नज़र है महरूम-ए-गुफ़्तुगू हूँ
कर चुके बर्बाद दिल को फ़िक्र क्या अंजाम की
तुम्हें हँसते हुए देखा है जब से
दिल आया इस तरह आख़िर फ़रेब-ए-साज़-ओ-सामाँ में