तुम्हें हँसते हुए देखा है जब से
मुझे रोने की आदत हो गई है
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सुकून-ए-दिल नहीं जिस वक़्त से उस बज़्म में आए
हादसात-ए-दहर में वाबस्ता-ए-अर्बाब-ए-दर्द
जब से ज़ुल्फ़ों का पड़ा है इस में अक्स
साफ़ बातिन देर से हैं मुंतज़िर
ज़बान दिल की हक़ीक़त को क्या बयाँ करती
बेकार ये ग़ुस्सा है क्यूँ उस की तरफ़ देखो
मिरे नासेह मुझे समझा रहे हैं
तमाम अंजुमन-ए-वाज़ हो गई बरहम
हिज्र की रात काटने वाले
ऐ सोज़-ए-इश्क़-ए-पिन्हाँ अब क़िस्सा मुख़्तसर है
भड़क उट्ठेंगे शो'ले एक दिन दुनिया की महफ़िल में
इंतिहा-ए-इश्क़ हो यूँ इश्क़ में कामिल बनो