वही हिकायत-ए-दिल थी वही शिकायत-ए-दिल
थी एक बात जहाँ से भी इब्तिदा करते
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जीते हैं कैसे ऐसी मिसालों को देखिए
जो यहाँ महव-ए-मा-सिवा न हुआ
पैदा वो बात कर कि तुझे रोएँ दूसरे
सुकून-ए-दिल नहीं जिस वक़्त से उस बज़्म में आए
वो निगाहें क्या कहूँ क्यूँ कर रग-ए-जाँ हो गईं
बेकार ये ग़ुस्सा है क्यूँ उस की तरफ़ देखो
क़फ़स में जी नहीं लगता है आह फिर भी मिरा
आईना छोड़ के देखा किए सूरत मेरी
मेरे रोने पे ये हँसी कैसी
ज़बान दिल की हक़ीक़त को क्या बयाँ करती
चारागर चुप हैं क्यूँ इलाज करें
एक ही ख़त में है क्या हाल जो मज़कूर नहीं