ये तेरी आरज़ू में बढ़ी वुसअत-ए-नज़र
दुनिया है सब मिरी निगह-ए-इंतिज़ार में
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बाज़ी-ए-इश्क़ मरे बैठे हैं
क़फ़स में जी नहीं लगता है आह फिर भी मिरा
क़त्ल और मुझ से सख़्त-जाँ का क़त्ल
लज़्ज़त-ए-ग़म
लुत्फ़-ए-बहार कुछ नहीं गो है वही बहार
तमाम अंजुमन-ए-वाज़ हो गई बरहम
उदासी अब किसी का रंग जमने ही नहीं देती
देख कर हर दर-ओ-दीवार को हैराँ होना
वो निगाहें क्या कहूँ क्यूँ कर रग-ए-जाँ हो गईं
ख़ुद चले आओ या बुला भेजो
जल्वा दिखलाए जो वो अपनी ख़ुद-आराई का
तुम ने छेड़ा तो कुछ खुले हम भी