ज़बान दिल की हक़ीक़त को क्या बयाँ करती
किसी का हाल किसी से कहा नहीं जाता
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ग़लत है दिल पे क़ब्ज़ा क्या करेगी बे-ख़ुदी मेरी
हिज्र की रात काटने वाले
इश्क़ जो मेराज का इक ज़ीना है
दुनिया का ख़ून दौर-ए-मोहब्बत में है सफ़ेद
शीशा-ए-दिल को यूँ न उठाओ
मैं तो हस्ती को समझता हूँ सरासर इक गुनाह
उदासी अब किसी का रंग जमने ही नहीं देती
सुकून-ए-दिल नहीं जिस वक़्त से उस बज़्म में आए
इंतिहा-ए-इश्क़ हो यूँ इश्क़ में कामिल बनो
वही हिकायत-ए-दिल थी वही शिकायत-ए-दिल
दिल के अज्ज़ा में नहीं मिलता कोई जुज़्व-ए-निशात
मुसीबत थी हमारे ही लिए क्यूँ