बेताबी में हर तरह से बर्बाद रहा
दिल अपना ग़म-ए-दहर से आबाद रहा
फिरता रहा हर शहर में मारा मारा
ऐ लखनऊ तू मुझ को मगर याद रहा
Parveen Shakir
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फिर अपनी तमन्नाओं का धागा टूटा
कौन भला ये कहता है ख़ुद आ के हम को मनाएँ आप
नई जुस्तुजू का अलमिया
सज़ा
फ़रेब खा के भी शर्मिंदा-ए-सुकूँ न हुए
रेत और दर्द
ख़ामुशी
इस तरह कुछ बदल गई है ज़मीं
ऐसी बेगानगी नहीं देखी
और कोई जो सुने ख़ून के आँसू रोए
मेरा जनम दिन