बक़ा उल्लाह 'बक़ा' कविता, ग़ज़ल तथा कविताओं का बक़ा उल्लाह 'बक़ा'

बक़ा उल्लाह 'बक़ा' कविता, ग़ज़ल तथा कविताओं का बक़ा उल्लाह 'बक़ा'
नामबक़ा उल्लाह 'बक़ा'
अंग्रेज़ी नामBaqaullah 'Baqa'

ये रिंद दे गए लुक़्मा तुझे तो उज़्र न मान

उल्फ़त में तिरी ऐ बुत-ए-बे-मेहर-ओ-मोहब्बत

सैलाब से आँखों के रहते हैं ख़राबे में

रुश्द-ए-बातिन की तलब है तो कर ऐ शैख़ वो काम

क़लम सिफ़त में पस-अज़-मरातिब बदन सना में तिरी खपाया

मत तंग हो करे जो फ़लक तुझ को तंग-दस्त

क्या तुझ को लिखूँ ख़त हरकत हाथ से गुम है

ख़्वाहिश-ए-सूद थी सौदे में मोहब्बत के वले

ख़ाल-ए-लब आफ़त-ए-जाँ था मुझे मालूम न था

कल के दिन जो गिर्द मय-ख़ाने के फिरते थे ख़राब

काबा तो संग-ओ-ख़िश्त से ऐ शैख़ मिल बना

इश्क़ ने मंसब लिखे जिस दिन मिरी तक़दीर में

इश्क़ में बू है किबरियाई की

इस बज़्म में पूछे न कोई मुझ से कि क्या हूँ

है दिल में घर को शहर से सहरा में ले चलें

है दिल में घर को शहर से सहरा में ले चलें

दिला उठाइए हर तरह उस की चश्म का नाज़

देखा तो एक शो'ले से ऐ शैख़-ओ-बरहमन

देख आईना जो कहता है कि अल्लाह-रे मैं

छोड़ कर कूचा-ए-मय-ख़ाना तरफ़ मस्जिद के

बुलबुल से कहा गुल ने कर तर्क मुलाक़ातें

बस पा-ए-जुनूँ सैर-ए-बयाबाँ तो बहुत की

बाँग-ए-तकबीर तो ऐसी है 'बक़ा' सीना-ख़राश

अपनी मर्ज़ी तो ये है बंदा-ए-बुत हो रहिए

ऐ इश्क़ तू हर-चंद मिरा दुश्मन-ए-जाँ हो

ये रुख़-ए-यार नहीं ज़ुल्फ़-ए-परेशाँ के तले

यकसाँ लगें हैं उन को तो दैर-ओ-हरम बहम

थे हम इस्तादा तिरे दर पे वले बैठ गए

सिपाह-ए-इशरत पे फ़ौज-ए-ग़म ने जो मिल के मरकब बहम उठाए

सीखा जो क़लम से न-ए-ख़ाली का बजाना

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