वो पोशीदा रखते हैं अपना तअ'ल्लुक़
इधर देख कर फिर उधर देख लेना
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नहीं ये आदमी का काम वाइ'ज़
असरार जहाँ लतीफ़ा-ए-ग़ैबी हैं
ये तासीर मोहब्बत है कि टपका
चराग़-ए-हुस्न है रौशन किसी का
कब कोई फ़ुज़ूल हाथ मिलता है भला
हज़ारों दिल मसल कर पैर से झुँझला के यूँ बोले
अदाएँ ता-अबद बिखरी पड़ी हैं
ग़म्ज़ा-ए-मा'शूक़ मुश्ताक़ों को दिखलाती है तेग़
ख़ाक करती है ब-रंग-ए-चर्ख़-ए-नीली-फ़ाम रक़्स
गौहर-ए-मक़्सद मिले गर चर्ख़-ए-मीनाई न हो
ये मैं कहूँगा फ़लक पे जा कर ज़मीं से आया हूँ तंग आ कर