'बेख़ुद' ज़रूर रात को सोए हो पी के तुम
ये तो कहो नमाज़ पढ़ी या क़ज़ा हुई
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जताए जाते हैं एहसान भी सता के मुझे
ज़ाहिदों से न बनी हश्र के दिन भी या-रब
अब इस से क्या तुम्हें था या उमीद-वार न था
तुम्हारी याद मेरा दिल ये दिनों चलते पुर्ज़े हैं
आप हों हम हों मय-ए-नाब हो तन्हाई हो
बज़्म-ए-दुश्मन में बुलाते हो ये क्या करते हो
ख़ुदा रक्खे तुझे मेरी बुराई देखने वाले
बात करने की शब-ए-वस्ल इजाज़त दे दो
मुझ को न दिल पसंद न वो बेवफ़ा पसंद
दिल मोहब्बत से भर गया 'बेख़ुद'
नज़र कहीं है मुख़ातब किसी से हैं दिल में