हम काफ़िरों ने शौक़ में रोज़ा तो रख लिया
अब हौसला बढ़ाने को इफ़्तार भी तो हो
Wasi Shah
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Gulzar
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कितना आसान था बचपन में सुलाना हम को
मुस्तक़िल रोने से दिल की बे-कली बढ़ जाएगी
सबब ख़ामोशियों का मैं नहीं था
वर्ना तो हम मंज़र और पस-मंज़र में उलझे रहते
अंधेरा मिटता नहीं है मिटाना पड़ता है
ख़्वाहिशों से वलवलों से दूर रहना चाहिए
वो चुप था दीदा-ए-नम बोलते थे
इक गर्दिश-ए-मुदाम भी तक़दीर में रही
मैं अपने लफ़्ज़ यूँ बातों में ज़ाए कर नहीं सकता
ये क्या कि रोज़ उभरते हो रोज़ डूबते हो
हर घड़ी तेरा तसव्वुर हर नफ़स तेरा ख़याल
दानिस्ता जो हो न सके नादानी से हो जाता है