बुत-ए-काफ़िर जो तू मुझ से ख़फ़ा हो
नहीं कुछ ख़ौफ़ मेरा भी ख़ुदा है
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किसी पहलू नहीं आराम आता तेरे आशिक़ को
ऐ 'रसा' जैसा है बरगश्ता ज़माना हम से
दिल आतिश-ए-हिज्राँ से जलाना नहीं अच्छा
अजब जौबन है गुल पर आमद-ए-फ़स्ल-ए-बहारी है
बख़्त ने फिर मुझे इस साल खिलाई होली
दश्त-पैमाई का गर क़स्द मुकर्रर होगा
ये कह दो बस मौत से हो रुख़्सत क्यूँ नाहक़ आई है उस की शामत
ग़ाफ़िल इतना हुस्न पे ग़र्रा ध्यान किधर है तौबा कर
असीरान-ए-क़फ़स सेहन-ए-चमन को याद करते हैं
फिर मुझे लिखना जो वस्फ़-ए-रू-ए-जानाँ हो गया
बैठे जो शाम से तिरे दर पे सहर हुई
नींद आती ही नहीं धड़के की बस आवाज़ से