वो एक पल की रिफ़ाक़त भी क्या रिफ़ाक़त थी
जो दे गई है मुझे उम्र भर की तन्हाई
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मिट गया ग़म तिरे तकल्लुम से
रंग मौसम के साथ लाए हैं
फ़ितरत के तक़ाज़े कभी बदले नहीं जाते
अब कर्ब के तूफ़ाँ से गुज़रना ही पड़ेगा
कितने बा-होश हो गए हम लोग
ज़ालिम से मुस्तफ़ा का अमल चाहते हैं लोग
नक़्श-बर-आब हो गया हूँ मैं
उसे ये हक़ है कि वो मुझ से इख़्तिलाफ़ करे
अभी से पाँव के छाले न देखो
साए में आबलों की जलन और बढ़ गई
गुज़र रहा हूँ मैं सौदा-गरों की बस्ती से
हवा के वास्ते इक काम छोड़ आया हूँ