सहल यूँ राह-ए-ज़िंदगी की है
सहल यूँ राह-ए-ज़िंदगी की है
हर क़दम हम ने आशिक़ी की है
हम ने दिल में सजा लिए गुलशन
जब बहारों ने बे-रुख़ी की है
ज़हर से धो लिए हैं होंट अपने
लुत्फ़-ए-साक़ी ने जब कमी की है
तेरे कूचे में बादशाही की
जब से निकले गदागरी की है
बस वही सुर्ख़-रू हुआ जिस ने
बहर-ए-ख़ूँ में शनावरी की है
जो गुज़रते थे 'दाग़' पर सदमे
अब वही कैफ़ियत सभी की है
(1945) Peoples Rate This