मुलाक़ात
ये रात उस दर्द का शजर है
जो मुझ से तुझ से अज़ीम-तर है
अज़ीम-तर है कि इस की शाख़ों
में लाख मिशअल-ब-कफ़ सितारों
के कारवाँ घर के खो गए हैं
हज़ार महताब इस के साए
में अपना सब नूर रो गए हैं
ये रात उस दर्द का शजर है
जो मुझ से तुझ से अज़ीम-तर है
मगर इसी रात के शजर से
ये चंद लम्हों के ज़र्द पत्ते
गिरे हैं और तेरे गेसुओं में
उलझ के गुलनार हो गए हैं
इसी की शबनम से ख़ामुशी के
ये चंद क़तरे तिरी जबीं पर
बरस के हीरे पिरो गए हैं
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बहुत सियह है ये रात लेकिन
इसी सियाही में रूनुमा है
वो नहर-ए-ख़ूँ जो मिरी सदा है
इसी के साए में नूर गर है
वो मौज-ए-ज़र जो तिरी नज़र है
वो ग़म जो इस वक़्त तेरी बाँहों
के गुलसिताँ में सुलग रहा है
वो ग़म जो इस रात का समर है
कुछ और तप जाए अपनी आहों
की आँच में तो यही शरर है
हर इक सियह शाख़ की कमाँ से
जिगर में टूटे हैं तीर जितने
जिगर से नोचे हैं और हर इक
का हम ने तेशा बना लिया है
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अलम-नसीबों जिगर-फ़िगारों
की सुब्ह अफ़्लाक पर नहीं है
जहाँ पे हम तुम खड़े हैं दोनों
सहर का रौशन उफ़ुक़ यहीं है
यहीं पे ग़म के शरार खिल कर
शफ़क़ का गुलज़ार बन गए हैं
यहीं पे क़ातिल दुखों के तेशे
क़तार अंदर क़तार किरनों
के आतिशीं हार बन गए हैं
ये ग़म जो इस रात ने दिया है
ये ग़म सहर का यक़ीं बना है
यक़ीं जो ग़म से करीम-तर है
सहर जो शब से अज़ीम-तर है
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