अब अपना इख़्तियार है चाहे जहाँ चलें
रहबर से अपनी राह जुदा कर चुके हैं हम
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मक़्तल में न मस्जिद न ख़राबात में कोई
मक़ाम 'फ़ैज़' कोई राह में जचा ही नहीं
कब ठहरेगा दर्द ऐ दिल कब रात बसर होगी
यास
इक़बाल
हर हक़ीक़त मजाज़ हो जाए
मुलाक़ात
ऐ शाम मेहरबाँ हो
गीत
शीशों का मसीहा कोई नहीं
शैख़ साहब से रस्म-ओ-राह न की
यूँ सजा चाँद कि झलका तिरे अंदाज़ का रंग