इक फ़ुर्सत-ए-गुनाह मिली वो भी चार दिन
देखे हैं हम ने हौसले पर्वरदिगार के
Jaun Eliya
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यूँ बहार आई है इस बार कि जैसे क़ासिद
यास
हमारे दम से है कू-ए-जुनूँ में अब भी ख़जिल
फिर लौटा है ख़ुर्शीद-ए-जहाँ-ताब सफ़र से
जमेगी कैसे बिसात-ए-याराँ कि शीशा ओ जाम बुझ गए हैं
आज यूँ मौज-दर-मौज ग़म थम गया इस तरह ग़म-ज़दों को क़रार आ गया
नज़्र-ए-मौलाना हसरत-मुहानी
इश्क़ मिन्नत-कश-ए-क़रार नहीं
सभी कुछ है तेरा दिया हुआ सभी राहतें सभी कुल्फ़तें
ख़ुशा ज़मानत-ए-ग़म
ब'अद-अज़-वक़्त
कोई आशिक़ किसी महबूबा से!