जो तलब पे अहद-ए-वफ़ा किया तो वो आबरू-ए-वफ़ा गई
सर-ए-आम जब हुए मुद्दई तो सवाब-ए-सिदक़-ओ-वफ़ा गया
Wasi Shah
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फूल मुरझा गए सारे
जो पैरहन में कोई तार मोहतसिब से बचा
गिरानी-ए-शब-ए-हिज्राँ दो-चंद क्या करते
जुदा थे हम तो मयस्सर थीं क़ुर्बतें कितनी
सफ़र नामा
ज़िंदाँ की एक शाम
न जाने किस लिए उम्मीद-वार बैठा हूँ
फ़िक्र-ए-सूद-ओ-ज़ियाँ तो छूटेगी
अगस्त-1952
सियासी लीडर के नाम
शाम-ए-फ़िराक़ अब न पूछ आई और आ के टल गई
ख़ुर्शीद-ए-महशर की लौ