बाक़ी है कोई साथ तो बस एक उसी का
पहलू में लिए फिरते हैं जो दर्द किसी का
इक उम्र से इस धन में कि उभरे कोई ख़ुर्शीद
बैठे हैं सहारा लिए शम्-ए-सहरी का
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मंज़र
यूँ सजा चाँद कि झलका तिरे अंदाज़ का रंग
तुर्क शाएर नाज़िम-हिकमत के अफ़्कार
न किसी पे ज़ख़्म अयाँ कोई न किसी को फ़िक्र रफ़ू की है
हम ऐसे सादा-दिलों की नियाज़-मंदी से
सुब्ह-ए-आज़ादी (अगस्त-47)
उन्हीं के फ़ैज़ से बाज़ार-ए-अक़्ल रौशन है
फिर लौटा है ख़ुर्शीद-ए-जहाँ-ताब सफ़र से
तीन आवाज़ें
जिस रोज़ क़ज़ा आएगी
दरीचा
अफ़्रीक़ा कम-बैक