दीवार-ए-शब और अक्स-ए-रुख़-ए-यार सामने
फिर दिल के आइने से लहू फूटने लगा
फिर वज़-ए-एहतियात से धुँदला गई नज़र
फिर ज़ब्त-ए-आरज़ू से बदन टूटने लगा
Allama Iqbal
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इस वक़्त तो यूँ लगता है
इनतिहा-ए-कार
तुम आए हो न शब-ए-इंतिज़ार गुज़री है
एक नग़्मा करबला-ए-बैरुत के लिए
ढाका से वापसी पर
न पूछ जब से तिरा इंतिज़ार कितना है
जाँ बेचने को आए तो बे-दाम बेच दी
तह-ए-नुजूम
नसीब आज़माने के दिन आ रहे हैं
मिरी जाँ अब भी अपना हुस्न वापस फेर दे मुझ को
इंतिसाब
तुम्हारे हुस्न से रहती है हम-कनार नज़र