फ़ज़ा-ए-दिल पे उदासी बिखरती जाती है
फ़सुर्दगी है कि जाँ तक उतरती जाती है
फ़रेब-ए-ज़ीस्त से क़ुदरत का मुद्दआ मालूम
ये होश है कि जवानी गुज़रती जाती है
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बुनियाद कुछ तो हो
बाक़ी है कोई साथ तो बस एक उसी का
फिर आईना-ए-आलम शायद कि निखर जाए
अगर शरर है तो भड़के जो फूल है तो खिले
इश्क़-आबाद की शाम
सारी दुनिया से दूर हो जाए
शाम-ए-फ़िराक़ अब न पूछ आई और आ के टल गई
मक़्तल में न मस्जिद न ख़राबात में कोई
बे-दम हुए बीमार दवा क्यूँ नहीं देते
कुछ मोहतसिबों की ख़ल्वत में कुछ वाइ'ज़ के घर जाती है
क़र्ज़-ए-निगाह-ए-यार अदा कर चुके हैं हम
तुम आए हो न शब-ए-इंतिज़ार गुज़री है