मय-ख़ानों की रौनक़ हैं कभी ख़ानक़हों की
अपना ली हवस वालों ने जो रस्म चली है
दिल-दारि-ए-वाइज़ को हमीं बाक़ी हैं वर्ना
अब शहर में हर रिंद-ए-ख़राबात वली है
Parveen Shakir
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Faiz Ahmad Faiz
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Wasi Shah
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शाख़ पर ख़ून-ए-गुल रवाँ है वही
लौह-ओ-क़लम
और भी दुख हैं ज़माने में मोहब्बत के सिवा
रक़ीब से!
साल-गिरह
और क्या देखने को बाक़ी है
किस शहर न शोहरा हुआ नादानी-ए-दिल का
सभी कुछ है तेरा दिया हुआ सभी राहतें सभी कुल्फ़तें
मिरे हमदम मिरे दोस्त!
ऐ ज़ुल्म के मातो लब खोलो चुप रहने वालो चुप कब तक
नुसख़ा-ए-उल्फ़त मेरा
अगर शरर है तो भड़के जो फूल है तो खिले