सबा के हाथ में नर्मी है उन के हाथों की
ठहर ठहर के ये होता है आज दिल को गुमाँ
वो हाथ ढूँड रहे हैं बिसात-ए-महफ़िल में
कि दिल के दाग़ कहाँ हैं नशिस्त-ए-दर्द कहाँ
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वक़्फ़-ए-हिरमान-ओ-यास रहता है
सुरुद-ए-शबाना
रात ढलने लगी है सीनों में
तराना
दिल से तो हर मोआमला कर के चले थे साफ़ हम
फ़रेब-ए-आरज़ू की सहल-अँगारी नहीं जाती
मेरे नदीम!
उन्हीं के फ़ैज़ से बाज़ार-ए-अक़्ल रौशन है
कुछ मोहतसिबों की ख़ल्वत में कुछ वाइ'ज़ के घर जाती है
न गुल खिले हैं न उन से मिले न मय पी है
अगस्त1955
लौह-ओ-क़लम