तिरा जमाल निगाहों में ले के उट्ठा हूँ
निखर गई है फ़ज़ा तेरे पैरहन की सी
नसीम तेरे शबिस्ताँ से हो के आई है
मिरी सहर में महक है तिरे बदन की सी
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यूँ सजा चाँद कि झलका तिरे अंदाज़ का रंग
किए आरज़ू से पैमाँ जो मआल तक न पहुँचे
नज़्म
आए कुछ अब्र कुछ शराब आए
जो तलब पे अहद-ए-वफ़ा किया तो वो आबरू-ए-वफ़ा गई
व-यबक़ा-वज्ह-ओ-रब्बिक
ब'अद-अज़-वक़्त
उन दिनों रस्म-ओ-रह-ए-शहर-ए-निगाराँ क्या है
हुस्न मरहून-ए-जोश-ए-बादा-ए-नाज़
ऐ हबीब-ए-अम्बर-दस्त!
यूँ बहार आई है इस बार कि जैसे क़ासिद
मता-ए-लौह-ओ-क़लम छिन गई तो क्या ग़म है