ये ख़ूँ की महक है कि लब-ए-यार की ख़ुशबू
किस राह की जानिब से सबा आती है देखो
गुलशन में बहार आई कि ज़िंदाँ हुआ आबाद
किस सम्त से नग़्मों की सदा आती है देखो
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जो तलब पे अहद-ए-वफ़ा किया तो वो आबरू-ए-वफ़ा गई
राज़-ए-उल्फ़त छुपा के देख लिया
हदीस-ए-यार के उनवाँ निखरने लगते हैं
मय-ख़ाना सलामत है तो हम सुर्ख़ी-ए-मय से
इश्क़-आबाद की शाम
वो आ रहे हैं वो आते हैं आ रहे होंगे
रात ढलने लगी है सीनों में
ख़ुदा वो वक़्त न लाए
मंज़र
ये फ़स्ल उमीदों की हमदम
नज़्र-ए-मौलाना हसरत-मुहानी
शैख़ साहब से रस्म-ओ-राह न की